चंद रवीश और कुछ अंजना को छोड़ दें तो मीडियाकर्मियों के खून से सनी है 'पत्रकारिता'
आज एक दोस्त से मुलाकात हुई। मीडिया को लेकर वो मुझसे मेरा अनुभव जानना चाहते थे। मैंने कहा यह अनुभव दुखी नहीं करता वरन इसके बारे में सोच कर घिन आने लगती है। वे ये सुन ऐसे देखने लगे, जैसे वो कोई और ही जवाब तलाश रहे थे। कुछ स्टार वाला, फेम वाला, नेम वाला। उन्हें भी उसी आंख से दिमाग में उतरने वाली चकाचौंध सा जवाब चाहिए था। मेरा जवाब सुन वो बोल पड़े, कैसे? मुझे बस इस एक शब्द का इंतजार था, कैसे। और मैंने कहा कि एक मीडिया का बंदा अपनी पूरी जिंदगी इस फील्ड को देता है, लेकिन बदले में उसे क्या मिलता है। कुछ टूटे सपने, शोषण, निराशा, अवसाद और चिल्लर वाली सैलरी, जिससे ढंग से उसका खर्च तक न चल सके। एक गाय की मौत पर घंटों चीखने वाले टीवी चैनल और पेपर घिसने वाले अखबार के मालिकान और संपादक को यह परवाह नहीं कि उसका कर्मचारी तिल-तिल मर रहा है। उसके सपने एक-एक कर टूट रहे हैं, बिखर रहे हैं। जिन्हें सहेजने का कोई उपाय नहीं। चेन की छिनौती करने पर डेढ़ कॉलम न्यूज छापने वाले अखबार की ये औकात नहीं कि अपने कर्मचारी की मां के लिए तीन लाइन की शोक संवेदना छाप सके। चंद रवीश और कुछ अंजना को छोड़ दें तो बाकी मीडिया