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Showing posts from 2017

प्रधानमंत्री जी ! बहुत उम्मीदें थी आपसे लेकिन अभी तक निराश हूँ

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"मैं यहां आया नहीं हूं मुझे बुलाया गया है, गंगा मैया ने बुलाया। देश की कमान 60 महीनों के लिए इस प्रधानसेवक को सौंप दीजिए। पाई पाई का हिसाब दूंगा। मुझे देश का चौकीदारी बना दीजिए। न खाउंगा न खाने दूंगा।" आपके ऐसे ना जाने कितने बयान थे, जिन्होंने 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान छपे अखबारों में हेडलाइन बनकर सुर्खियां बटोरीं। चुनावी रैलियों के मंचों के साथ आपके भाषण बदलते रहे, बिहार गए तो बिहार की जनता का दर्द आपकी जुबान पर था और यूपी आए तो यूपी की जनता का दर्द। अपनी क्षमताओं की नुमा​इश से आपने एक ऐसा माहौल बना दिया मानो हर मर्ज की एक ही दवा है मोदी। सरकारी विभागों के भ्रष्टाचार से लेकर राजनीति में वंशवाद और परिवारवाद तक, किसानों की आत्महत्या से सीमा पर आतंकवादियों के खिलाफ लड़ाई में जान गंवाते सेना के जवानों तक, गरीबों को उनका हक दिलाने से लेकर विदेशों में छुपाए कालेधन को वापस लाने तक और शिक्षा के गिरते स्तर से लेकर रोजगारों के अवसरों को बढ़ाने तक हर परेशानी को दूर करने की जिम्मेदारी आपने ली थी। वो भी 60 महीनों में। आज आप प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल का तीन च

बलिया बनाम लखनऊ, बागी बनाम तहजीब

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पड़ोसी (अंसारी जी) ने लिख मेरी बाइक पर चस्पा किया है। (मैंने उनके गेट के सामने अपनी बाइक लगा दी थी) हर शहर और इलाके की आब ओ हवा का अपना एक अलग रंग और मिजाज होता है जिसका असर वहां के लोगों पर देखा जा सकता है। इस बात को आज मैने बड़े करीब से महसूस किया। ' वीरों की धरती जवानों का देश बागी बलिया उत्तर प्रदेश' इस कहावत को सुनकर जवान होते-होते कब मैं अपने भीतर एक बागी को देखने लगा यह बात मुझे भी नहीं मालूम, जिन्दगी आगे बढ़ी और मैं भी आगे बढ़ने और कुछ बड़ा करने के इरादे के साथ बलिया से निकल लिया। साथ में मां बाप के अशीर्वाद और जरूरत के सामान के साथ जो चीज सबसे भारी समझ पड़ रही थी वो अपना बागी एटीट्यूट था।  अपना नया ठिकाना लखनऊ में जमा था, जो चार साल बाद आज भी कायम है। वही चार दोस्त और एक दो कमरों का किराए का मकान जिसे हम जैसे बागी फ्लैट का नाम दे चुके हैं। पढ़ाई, नौकरी और बागी की प्राइवेट लाइफ इन तीन बातों के बीच मजे की बीत रही है। लखनऊ आकर बहुत कुछ बदला है, बहुत कुछ सीखा है तो बहुत कुछ पीछे छूट गया।  बहुत दिन बाद आज फिर कुछ नया सीखने को मिला, जो लखनऊ के सिवा कोई और शहर नहीं

एक काल्पनिक जिसे पढ़ शायद हर कोई भावुक हो जाये

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          डियर मम्मी पापा,  आज 9 साल के बाद मेरे बारे में एक बार फिर अदालत का फैसला आया है. मैं कहीं दूर आसमान से इसे देख पा रही हूँ और अब जब आप दोनों आज डसना जेल से निकालेंगे तो यकीन मानिये मैं बहुत खुश हो रही होंगी आखिर किस बच्चे को अपने मम्मी पापा को जेल में देख कर अच्छा लगता है . पापा, आपकी लाडली अगर आज आपके पास होती तो आप उसका 22 वाँ जन्मदिन मनाने की तैय्यारियों में जुटे होते. और मैं शायद अपने मम्मी पापा की तरह ही एक डाक्टर बन चुकी होती या शायद कुछ और मगर जो भी होती आपको गर्व होता. लेकिन मेरी किस्मत में शायद ये लिखा ही नहीं था. मैं आप दोनों के साथ एक खुशहाल जिंदगी बिताना चाहती थी हर दूसरे बच्चे की तरह, लेकिन 16 मई 2008 की रात हम सब पर भारी रही. मम्मी तुम तो जानती हो मेरे बारे में. हर माँ अपने बच्चे के बारे में सब कुछ जानती है. मेरे सपने को मेरे दोस्तों को और मेरा सब कुछ. मगर यहाँ से मैं ये भी देख रही हूँ कि देश भर में लोग उस 16 मई की रात क्या कुछ हुआ उसे जानना चाहते हैं. आखिर क्यूँ आप दोनों को इतने लम्बे समय तक जेल में रहना पड़ा , ये भी जानना चाहते हैं और ये भी कि आ

चंद रवीश और कुछ अंजना को छोड़ दें तो मीडियाकर्मियों के खून से सनी है 'पत्रकारिता'

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आज एक दोस्त से मुलाकात हुई। मीडिया को लेकर वो मुझसे मेरा अनुभव जानना चाहते थे। मैंने कहा यह अनुभव दुखी नहीं करता वरन इसके बारे में सोच कर घिन आने लगती है। वे ये सुन ऐसे देखने लगे, जैसे वो कोई और ही जवाब तलाश रहे थे। कुछ स्टार वाला, फेम वाला, नेम वाला। उन्हें भी उसी आंख से दिमाग में उतरने वाली चकाचौंध सा जवाब चाहिए था। मेरा जवाब सुन वो बोल पड़े, कैसे? मुझे बस इस एक शब्द का इंतजार था, कैसे। और मैंने कहा कि एक मीडिया का बंदा अपनी पूरी जिंदगी इस फील्ड को देता है, लेकिन बदले में उसे क्या मिलता है। कुछ टूटे सपने, शोषण, निराशा, अवसाद और चिल्लर वाली सैलरी, जिससे ढंग से उसका खर्च तक न चल सके। एक गाय की मौत पर घंटों चीखने वाले टीवी चैनल और पेपर घिसने वाले अखबार के मालिकान और संपादक को यह परवाह नहीं कि उसका कर्मचारी तिल-तिल मर रहा है। उसके सपने एक-एक कर टूट रहे हैं, बिखर रहे हैं। जिन्हें सहेजने का कोई उपाय नहीं। चेन की छिनौती करने पर डेढ़ कॉलम न्यूज छापने वाले अखबार की ये औकात नहीं कि अपने कर्मचारी की मां के लिए तीन लाइन की शोक संवेदना छाप सके। चंद रवीश और कुछ अंजना को छोड़ दें तो बाकी मीडिया

नमक तो स्वादानुसार ठीक था, अब मुद्दे भी...

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अखबार की बेस्वाद कवर स्टोरी, समाचार चैनलों पर हर शाम होने वाली बेमतलब की बहस और सोशल मीडिया पर बुद्धिजीवी वर्ग की पोस्ट का स्वाद कब बदल जाए ये किसी को नहीं पता। इन सब को बदलने के लिए तड़का चाहिए होता है, ठीक वैसा जो घर की दाल में अनिवार्य रूप से लगाया तो जाता है, लेकिन ज्यादा मजा होटल की दाल वाला देता है। यहां हम घर की दाल त्रिपुरा के शांतनु भौमिक हत्याकांड और पंजाब में केजे सिंह हत्याकांड को मान सकते हैं और होटल की दाल के तौर पर बेंग्लुरू के गौरी लंकेश हत्याकांड को ले सकते हैं। इन तीनों हत्याकांड की तुलना आपस में किया जाना बेहद गलत है, लेकिन इसके बावजूद करना पड़ता है क्योंकि बहुत बड़ा और अक्सर चुनिन्दा मुद्दों पर मुखर होने वाला वर्ग इन घटनाओं को चुपचाप तौलने में जुटा है। तो चलिए अब तुलना शुरू करते हैं। पहला मामला गौरी लंकेश की हत्या का था। दो तीन अपराधी आते हैं और गोली मारकर उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं। यह एक दर्दनाक लेकिन एक सामान्य सी नजर आने वाली आपराधिक घटना थी। इसके बाद दूसरा मामला है शांतनु भौमिक के अपहरण और हत्या का है। शांतनु का अपहरण उस समय हुआ जब वह रिर्पोटिंग

काश! किसी ने पहल की होती।, आज बीएचयू का तमाशा नहीं बनता

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देखते ही देखते एक अच्छा-खासा और जरूरी सा आंदोलन कब हिंसाई और बौद्धिक तमाशा में बदल जाता है समझ में नहीं आता. लड़कियों की मांग कहाँ गलत थी. ? क्या अपनी सुरक्षा की मांग करना नाजायज है ? या उपर से ये कहना कि दो मिनट वीसी साहेब आकर मिल लेंगे तो हम लोग अपना प्रदर्शन बन्द कर देंगे। कितना अच्छा होता कि पहले ही दिन वीसी साहेब आते और लड़कियों के सर पर हाथ रखकर कह देते की "बेटी आप लोग निर्भीक रहें बीएचयू प्रशासन सदैव आपके साथ है" इतनी जिम्मेदारी तो बनती है न ? वाइस चांसलर एक यूनिवर्सिटी का गार्जियन ही तो है और बीएचयू प्रशासन संरक्षक। अब लड़कियां और लड़के अपनी बात इनसे नहीं कहेंगे तो किससे कहेंगे ? क्या इनको इतना पता नहीं था कि लड़कियों को सुरक्षा के प्रति आश्वस्त नहीं किया गया,तो कुछ लोग इस जरूरी आंदोलन के बहाने माहौल बिगाड़ने की भयंकर साजिश रच सकतें हैं..कुछ कलम लेकर बैठ सकते हैं और कुछ बम लेकर. और दुर्योग से वही हुआ भी..रात दस बमों की आवाज से समूचा परिसर ही नहीं दो किलोमीटर तक का इलाका गूंज उठा,अब बताइये ये बम बनाने वाले कौन लोग होंगे ? और उनकी मंशा क्या रही होगी.?। ये भी बताना

सत्य की खोज में... मैं कौन हूं...

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पहले वह ठीक था। अपर डिविजनल क्लर्क है। बीवी है, दो बच्चे हैं। कविता वगैरह का शौक है। वह मेरे पास कभी-कभी आता। कोई पुस्तक पढ़ने को ले जाता, जिसे नहीं लौटाता। दो-तीन महीने वह लगातार नहीं आया। फिर एक दिन टपक पड़ा। पहले जिज्ञासु की तरह आता था। अब कुछ इस ठाठ से आया जैसे जिज्ञासा शांत करने आया हो। उसका कुर्सी पर बैठना, देखना, बोलना सब बदल गया था। उसने कविता की बात नहीं की। बड़ी देर तो चुप ही बैठा रहा। फिर गंभीर स्वर में बोना, 'मैं जीवन के सत्य की खोज कर रहा हूं।' मैं चौंका। सत्य की खोज करने वालों से मैं छटकता हूं। वे अक्सर सत्य की ही तरफ पीठ करके उसे खोजते रहते हैं। मुझे उस पर सचमुच दया आई। इन गरीब क्लर्कों को सत्य की खोज करने के लिए कौन बहकाता है? सत्य की खोज कई लोगों के लिए अय्याशी है। यह गरीब आदमी की हैसियत के बाहर है। मैं, कुछ नहीं बोला। वही बोला, 'जीवन-भर मैं जीवन के सत्य की खोज करूंगा। यही मेरा व्रत है।' मैंने कहा, 'रात-भर खटमल मारते रहोगे, तो सोओगे कब।' वह समझा नहीं। पूछा, 'क्या-मतलब। मैं आपके पास आता हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि आप भी सत्य की खोज

गौरी पर 'गौर' किया, अब शांतनु पर इतनी 'शांति' क्यों...

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करीब एक पखवाड़े पहले कन्नड़ मूल की लेखिका व पत्रकार गौरी लंकेश की उनके घर पर ही दर्दनाक ढंग से हत्या कर दी गयी, जिस पर पूरे देश ने गुस्सा व दुःख जाहिर किया। हत्यारों की गिरफ्तारी की मांग की गयी, मुठ्ठा भर कैंडल लेकर लोगों ने मार्च  किया, विशेष विचारधारा के लोगों पर आरोप-प्रत्यारोप लगाये गए, देश के कई शहरों में जनसैलाब एकत्रित हुआ, प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया पर सभाएं आयोजित हुई, मीडिया ने भी अपने प्राइम टाइम में इसके खिलाफ आवाज़ उठाई, सोशल मीडिया लगभग गौरी को श्रधांजलि देने वालों से भर गया था।  इन सभी चीजों को देख मुझे बड़ा ही गर्व हुआ, मुझे लगा कि शायद आगे यह नौबत न आये, अब किसी कलमकार पर हमला  को दस बार सोचना पड़ेगा, इस भीड़ की आवाज़ को सुन, इस गुस्से को देख, वह जरुर थर्रा गया होगा। ऐसे लोग जो प्रेस की आजादी पर चोट करने की फिराक में रहते है, ऐसे लोग जो कलम की नोंक तोड़ने की चाहत रहते हैं आज उन्हें अंदाज़ा हो गया कि देश भर के कलमकार जब एकजुट हो जाये तो हवा का रुख मोड़ सकते हैं, सरकार को कटघरे में ला सकते हैं, जनता की आवाज़ को नया सुर दे सकते हैं। भले ही आज भी गौरी के हत्यारे पुलिस की गिरफ्त से बाहर

पत्रकारों की भी दुसवारियाँ हैं साहब

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गांव में मेरे कुल-पुरोहित के बेटे जगदीश बाबा लंबी बेरोजगारी झेलकर बनारस के किसी अखबार का स्ट्रिंगर बनने में सफल रहे। जल्द ही लोग उनकी साइकल पहचानने लगे, जिसकी डोलची पर उनका और उनके अखबार का नाम लिखा था। स्ट्रिंगर जमीनी स्तर पर अखबारों के हाथ-पांव होते हैं लेकिन उन्हें नियमित वेतन नहीं, छपी खबर की लंबाई के हिसाब से मेहनताना मिलता है। चार-छह मील के दायरे में जगदीश बाबा अपने अखबार के प्रतिनिधि थे। थानों और कोटा-परमिट की दुकानों में उन्हें बैठने के लिए कुर्सी मिलती थी। जब-तब छोटे-मोटे फायदे भी। लेकिन इलाके में उनकी छवि एक महापंडित के नालायक बेरोजगार बेटे की ही बनी रही। एक बार जगदीश बाबा ने किसी चौकी इंचार्ज के बारे में कोई तीखी खबर लिख दी तो उसने उन्हें चोरी के मामले में फंसा दिया और हवालात में बंद करके उनकी खूब पिटाई की। जगदीश बाबा के बारे में मेरे पास ठोस सूचनाएं इतनी ही हैं, सो उनको हीरो या विलेन की श्रेणी में रखना मेरे लिए संभव नहीं। हां, इतना पता है कि उनकी मृत्यु जहर से हुई और मेरे विद्वान कुल-पुरोहित के लिए अपने इकलौते बेटे का जीना और मरना, दोनों सतत पीड़ा के कारण बने रहे।

ऐसा मत कर तू लड़की है!

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‘ऐसा मत कर तू लड़की है’, ‘ज़ोर से मत बोल, ज़ोर से मत हंस तू लड़की है’, सिर झुका के चल,’लड़की होके बड़ों से ज़ुबान लड़ाती हो? ये सब बातें तब से ही सुनने को मिली हैं जब से कुछ जानने समझने लायक हुई। थोड़े और बड़े हो गएं तो घर से बाहर निकलना बंद, बस काम के लिए निकलो, अपने भाइयों के साथ भी नहीं खेलना बंद। बड़े भाई या पिता जी के साथ चारपाई पर नहीं बैठ सकती क्योंकि तुम एक लड़की हो। घर का सारा काम सीख लो, क्योंकि तुम एक लड़की हो। पैदा होते ही अमूमन हर लड़की को उसके हंसने -रोने, खाने -पीने, बोलने सब के मानक तय कर दिए जाते हैं। इस तरह जब एक लड़की बड़ी होती है उसको पितृसत्ता का वह रूप स्वाभाविक लगने लगता है जो धीरे-धीरे उसके भविष्य को दीमक की तरह चाट रहा होता है। लड़कियों को उनके और उनके भाई के साथ किया जाने वाला विभेद भी स्वाभाविक लगने लगता है। वह रात को चाहे जितनी देर से घर आए, कोई दिक्कत नही क्योंकि वह लड़का है। पिताजी घर में चाहे जितनी तेज़ आवाज़ में बात करें, गलत होने पर भी माँ के ही ऊपर ही चिल्लाएं पर माँ चुपचाप सुनती जाती है क्योंकि पिता जी एक पुरुष हैं। यहीं से उसमें पुरुष की श्रेष्ठता का स्वाभाविक

जाने रवीश को मोदी के खिलाफ बोलने पर क्यों देनी पडी सफाई

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वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के विरोध में दिल्ली के प्रेस क्लब में आयोजित की गई पत्रकारों की एक सभा में एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार के संबोधन पर सोशल मीडिया जगत में फेक न्यूज की बाढ़ आई हुई है. कुछ लोगों ने उनके भाषण के गलत अर्थ निकाल कर उनके खिलाफ एक तरह का अभियान चलाया है.

पत्रकारों का दुख सिर्फ गौरी लंकेश की ही मौत पर क्यों उमड़ा

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गौरी लंकेश की मौत पर मातम मनाया जाए लेकिन तमाशा न बनाया जाए, यह कोई पहली बार किसी पत्रकार की हत्या नहीं हुई है जो प्रेस क्लब पर सभाएं संबोधित की जा रही है। साहब ढोंग व दिखावा दुनिया बखूबी समझती है। इस देश ने पत्रकारों को जिंदा जलते देखा है, सीने पर गोलियां खाते देखा है, कईयों को मरते देखा है। शाहजहांपुर में एक पत्रकार को फूंक डाले गये जांबाज पत्रकार जागेंद्र सिंह के मामले ने पूरे यूपी और देश भर में तहलका मचा दिया था। इस मामले में तब की अखिलेश सरकार के एक प्रभावी मंत्री राममूर्ति वर्मा और उसके गुर्गे तथा कोतवाल श्रीप्रकाश राय समेत पूरी टोली इस नृशंस हत्‍याकांड में शामिल थी। मगर भारतीय प्रेस क्‍लब इस माले में पूरी तरह तटस्‍थ रहा, मानो इस मामले से उसका कोई लेना-देना ही न हो। गुरमीत राम रहीम के काले कारनामों पर से पर्दा उठाने वाले पूरा सच के संपादक रामचंद्र छत्रपति की हत्या पर आवाज बुलंद की थी। पेशे से वकील था रामचंद्र छत्रपति, लेकिन अपराधियों से पूरा सच उगलने के अभियान के तहत उसने रामरहीम का कच्‍चा-चिट्ठा इतना छाप दिया कि मानो तूफान भड़क गया। नतीजा यह हुआ कि उसके चंद मीनों पहले ही

मीडिया के लिए तब था 'मल्टीटैलेंटेड बाबा', और अचानक आज...

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वही मल्टीटैलेंटेड बाबा राम रहीम अब मीडिया के लिए रेपिस्ट, कुकर्मी, हैवान, ढोंगी न जाने क्या-क्या बन गया है। था तो वह पहले भी लेकिन इस मीडिया उस वक़्त दिखाई नहीं देता था, देता भी कैसे बाबा की खूबियाँ गिनने से फुरशत मिले तब तो खामियों की तरफ नज़र जाए। खैर आज के समय में यह ढोंगी बाबा मीडिया चैनलों के लिए टीआरपी का संसाधन बन चुका है। तभी तो बाबा के काफ़िले से लेकर बाबा की आलीशान गुफ़ा तक आपने एक-एक करके बाबा की सारी परतें उधेड़ कर रख दी हैं। बाबा अय्याश पहले भी था, बाबा ढोंगी पहले भी था, बाबा के डेरे में हथियारों से लैस उसके ख़ुद के प्राइवेट कमांडों पहले भी थे। बाबा का डेरा पहले भी रहस्यमयी था।बाबा पर बलात्कार के आरोप डेढ़ दशक पहले लगे थे लेकिन नींद तब खुली जब दो बहादुर बेटियों ने अपने बल बूते जंग जीत ली, बाबा को काल कोठरी पहुंचा दिया, बबके गुंडों ने आपकी संपत्ति जला भी, कुछ आपके साथियों को चोट पहुंचा दी। देर हो गयी है साहब, आपकी पोल खुल चुकी है, जनता सब समझती है। कहावत है सुबह का भूला शाम को भी घर लौट आए तो भूला नहीं कहते लेकिन आपने तो लौटने में वर्षों लगा दिये, आपका ही साथी इस बाबा की

हमारी मेट्रो, आपकी मेट्रो, सबकी मेट्रो ...फिर सियासत क्यों ?

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लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ अब मेट्रो वाला शहर हो गया है। नोेएडा के बाद लखनऊ सूबे का दूसरा शहर होगा जहां लोग मेट्रो ट्रेन में सफर कर पाएंगे। 5 सितंबर को बड़े ताम झाम के साथ सीएम योगी आदित्यनाथ, केन्द्रीय गृह मंत्री व लखनऊ के सांसद राजनाथ सिंह और राज्यपाल राम नईक की मौजूदगी में हरी झंडी दिखाकर लखनऊ मेट्रो के संचालन को आम लोगों के लिए शुरू किया गया। यह मौका सियासी लिहाज से बेहद अहम था, क्योंकि जिस मेट्रो को हरी झंड़ी दिखाई गई उसका लोकार्पण पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कर चुके थे। यही वजह रही कि समाजवादी पार्टी के नेताओं ने इस अवसर पर न सिर्फ अपना विरोध दर्ज करवाया बल्कि अगले दिन ही सैकड़ों पार्टी कार्यकर्ता अखिलेश यादव के पोस्टर लेकर मेट्रो में सवार होने के लिए ट्रांसपोर्ट नगर मेट्रो स्टेशन पर पहुंच गए। जहां उनका स्वागत पुलिस की लाठियों ने​ किया। लखनऊ में मेट्रो को लेकर जिस तरह की राजनीति हो रही है उसके पीछे की वजह स्पष्ट है। समाजवादी पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं का मानना है कि लखनऊ मेट्रो अखिलेश यादव की देन है। बतौर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के प्रयासों को देखते हुए यह

मंत्री के डर से लाश का इलाज करते रहें बीआरडी मेडिकल कालेज के डॉक्टर

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गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल की मौत के मंज़र को बयां नहीं किया जा सकता, चाहे हम जितनी भी संवेदना प्रकट कर ले लेकिन उन परिवार के दर्द को साझा नहीं कर सकते जो हमारी सिस्टम की लापरवाही की वजह से मिला है। कोई उस मां के दर्द को नहीं बाट सकता, जिसके जिगर के टुकड़े ने उसकी नज़र के सामने दम तोड़ दिया। ऐसे न जाने के​ कितने रिश्ते हैं जिन्होंने अपने नौनिहालों को खो दिया। उसके बाद भी अस्पतला प्रशासन ने उनकी संवेदनाओं के साथ जो खेल खेला वह चौकाने वाला है। सिद्धार्थनगर के रामसकल से जब पत्रकारों ने बात की तो वह फफक पड़े। उन्होंने आप बीती सुनाते हुए कहा कि अगर उनका पोता मर गया था तो बता देते उसका क्रिया करम करने के लिए घर ले जाते। लेकिन डॉक्टर साहब आए और बोले कि मंत्री का दौरा है और बाहर मीडिया खड़ी है इसलिए शव को कंबल से ढ़क कर बैड पर रखे रहो ताकि ऐसा लगे कि वह जिन्दा है और उसका इलाज चल रहा है। रामसकल कहते हैं कि बीआरडी के डाक्टर मौतों को छिपाने में लगे हैं। किसी से पीछे के रास्ते निकलने की बात कहते हैं। तो किसी को मृत्यु प्रमाण पत्र देने से इंकार कर देते हैं। कई बेचारों को तो कोई कागज तक नहीं दिए।

राज करने की नीति ही राजनीति है,न नीतीश सही न लालू गलत...

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पटना.  लोकतंत्र हो या राजतंत्र दोनों में राज यानी सत्ता सर्वोपरि है। अब सत्ता पर बैठने और बने रहने के लिए क्या नीति अपनानी है वह राजनीति है। सत्ता पर बने रहने के लिए कोई भी नीति अपनाई जा सकती है। इसमें न कुछ गलत होता है और न ही सही, क्योंकि सत्ता सिर्फ सफलता देखती है न कि सही और गलत। जिसकी नीति सफल होती है वही सत्ता को भोग सकता है। ऐसा ही कुछ नीतीश कुमार ने भी किया है। जिस  सूचिता भरी राजनीति का हवाला देकर वह सीएम की कुर्सी से इस्तीफा देकर गए अब उसी सूचिता के नाम पर वह बीजेपी से हाथ मिलाकर दोबारा सीएम की कुर्सी पर कब्जा जमाने में कामयाब नजर होते नजर आ रहे हैं। बिहार की राजनीति में हो रही उठा पटक को शुद्ध राजनीति कहा जा सकता है। पूरे घटनाक्रम को देखा जाए तो नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच एक ताल मेल नजर आता है। जिसकी शुरूआत 2016 में नोटबंदी के समय जिस तरह से नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के फैसले को सराहने और राष्ट्रपति चुनावों में एनडीए प्रत्याशी रामनाथ कोविंद को उनका समर्थन देने से जोड़कर देखा जाए तो गलत नहीं होगा। शायद यह तालमेल उस समय नहीं था जब नी

अल्पसंख्यक नागरिकों के लिए जहन्नुम से भी बदतर है पाकिस्तान, ऐसें है हालात

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क्या आपने सुना है कि किसी देश में नौकरी की योग्यता के लिए धर्म का जिक्र ​किया जाए? क्या किसी देश की सरकार ये सुनिश्चित कर सकती है कि उसके देश में मैला उठाने और सफाई करने का काम धर्म विशेष के लोग ही करेंगे? ऐसा सिर्फ ​इसलिए किया जाएगा ता​कि सफाई कर्मी के रूप में उनका शोषण किया जा सके और ड्यूटी के दौरान दुर्घटना का शिकार होने पर उसे मरने के लिए छोड़ा जा सके। ऐसे में होने वाली मौत एक अल्पसंख्यक की होगी जिसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाएगा। ऐसा पाकिस्तान में हो रहा है। पाकिस्तान की हैदराबाद मुनिसिपल कार्पोरेशन ने सफाई कर्मियों की भर्ती निकाली है। इस भर्ती के लिए योग्यता के रूप में आवेदनकर्ता का ईसाई या किसी अन्य अल्पसंख्यक समुदाय से होना आवश्यक है। इसके साथ ही सफाई कर्मियों को अपने धर्मग्रन्थ पर हाथ रखकर शपथ लेनी होगी कि वे सफाई के अलावा कोई अन्य काम नहीं करेंगे। मुनिसिपल कार्पोरेशन की ओर से जारी विज्ञापन पर पाकिस्तान की किसी भी संवैधानिक संस्था ने सवाल नहीं उठाया है। जबकि यह विज्ञापन पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 27 का खुलेआम उल्लंघन करने वाला है। जानकारों की माने तो पाकिस्तान में अ

क्या वास्तव में कोई इलाज नहीं है इन बीमारू मरीजों का, जो लड़की देख शुरू हो जाते हैं....

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महिला सुरक्षा के नाम पर सरकारें, समाजसेवी संस्थाएं और समाज के लिए रोल मॉडल कहलाने वाली सिलेब्रिटीज कितनी भी जागरुकता क्यों न फैला लें लेकिन बीमार मा​नसिकता वाले लोंगों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला। ऐसी बीमार मानसिकता से पीड़ित व्यक्तियों के लिए महिलाएं सिर्फ उनकी शारीरिक जरूरत को पूरा करने का माध्यम भर है। ऐसे लोग तरह तरह से महिलाओं का शोषण करते हैं कभी अपनी गंदी ​नजर से तो कभी अपनी गंदी जुबान से। कुछ तो इससे भी आगे निकल कर अश्लील इशारे से लेकर अश्लील स्पर्श तक करने से नहीं डरते। इससे ज्यादा खराब मानसिकता उन लोगों की है जिन्हें ऐसे अपराधों को होने से रोकने की जिम्मेदारी के लिए सरकारें मोटी पगार देती है, लेकिन ये लोग अपने कर्तव्य को पूरा करने से ज्यादा पीड़ितो का मजाक बनाना पसन्द करते हैं।.... बीमार मानसिकता को दर्शाती एक घटना मुंबई की लोकल ट्रेन में घटी। जिसका जिक्र उसी ट्रेन में सफर करने वाली युवती ने अपनी फेसबुक वॉल पर किया है। इस युवती ने बड़ी हिम्मत दिखाते हुए पूरी आपबीती को लिखा है। इस युवती ने मुंबई पुलिस का जिक्र जिस तरह से किया है उसे देखकर लगता है कि मुंबई पुलिस भी

कौन कितना बदलेगा ?

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साल 2015  है। 2016 का बेसब्री से इंतज़ार हो रहा है। जब 31 दिसंबर की रात 12 बजेंगे, तब पता नहीं क्या-क्या बजेगा? म्यूजिक बजेगा, आसपास पटाखों के शोर से आपके कान बजेंगे। फिर आपके मोबाइल का घंटी बजेगी। लोग आपको शुभकामनाएं देंगे। ऐसे जश्न मनाया जाएगा जैसे सब कुछ बदल जाने वाला है। क्या बदलेगी हमारी सोच? 2015 में कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्हें अंजाम देने के लिए हमारी सीमित सोच ज़िम्मेदार है। दादरी के दर्द को भुलाना इतना आसान नहीं है। एक मांस के टुकड़े कि वजह से पड़ोस में रहने वाले एक मुस्लिम परिवार के कुछ सदस्यों की जमकर पिटाई होती है। कुछ लोग रात के अंधरे में उनका दरवाजा तोड़ते हैं। वह भागने की कोशिश करते हैं, लेकिन कोई फायदा नहीं होता है। भीड़ इतनी हिंसक हो जाती है कि गुस्से में अपना होश खो बैठती है और पीट-पीटकर एक आदमी की हत्या कर देती हैं। यही नहीं उसके बेटे को भी अस्पताल पहुंचा दिया जाता है। यह सब देखते हुए भी हम और आप जैसे लोग चुप रहते हैं। यह सिर्फ दादरी की बात नहीं देश में कई ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। कभी हिन्दू-मुसलमान को मारता है तो मुसलमान-हिन्दू को। हमारे पड़ोस में अत्याचार होते हुए ह

दशहरे में राम बनने वाला 'जुनैद' कैसे बन गया हैवान...

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समाज किस ओर जा रहा है, कहाँ भागा जा रहा है कोई तो पकड़ लो, कोई तो रोक लो, यहां दरिंदा भी कैसे जगह बना रहा है। यह सब बातें अंतरमन को कही न कही टीसती रहती हैं, अन्दर ही अन्दर सवाल पूछती है कि तुम कैसे देख सकते हो, क्या तुममे भी इंसानियत नहीं रही। क्या तुम्हे भी किसी असहाय मां जिसने अपने कलेजे के टुकडे को खो दिया है उसका दर्द महसूस नहीं होता , तुम्हें उस बाप का भी दर्द नहीं महसूस होता जिसने अपने लाठी के सहारे को खो दिया हो और बेसहारा पड़ा कही कोने में तड़प रहा है, या फिर उस बहन का जो इस उम्मीद में रहती थी कि राखी आये तो वो अपने भाई की सूनी कलाई पर राखी बांधे। आखिर तुम्हें इन सब बातों का मलाल कैसे नही होता ,कैसे किसी घर के इकलौते चिराग के बुझ जाने से तुम्हें उस घर में अंधेरा महसूस नही होता...चलो कोई न सिर्फ तुमने ही ठेका थोड़ी ले रखा है दर्द तो सबको महसूस होना चाहिए था फिर भी एक सवाल उठता है कि ये अचानक बिना हवा बयार के अचानक इतना तेज तूफान कहां से आता है जो बिना किसी आहट सब कुछ उथल-पुथल कर चला जाता है। मेरे गांव का वो किस्सा अब सिर्फ किस्सा बन रह गया है जब रहीम चाचा का जुनैद ईद पर घर आता