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Showing posts from September, 2017

नमक तो स्वादानुसार ठीक था, अब मुद्दे भी...

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अखबार की बेस्वाद कवर स्टोरी, समाचार चैनलों पर हर शाम होने वाली बेमतलब की बहस और सोशल मीडिया पर बुद्धिजीवी वर्ग की पोस्ट का स्वाद कब बदल जाए ये किसी को नहीं पता। इन सब को बदलने के लिए तड़का चाहिए होता है, ठीक वैसा जो घर की दाल में अनिवार्य रूप से लगाया तो जाता है, लेकिन ज्यादा मजा होटल की दाल वाला देता है। यहां हम घर की दाल त्रिपुरा के शांतनु भौमिक हत्याकांड और पंजाब में केजे सिंह हत्याकांड को मान सकते हैं और होटल की दाल के तौर पर बेंग्लुरू के गौरी लंकेश हत्याकांड को ले सकते हैं। इन तीनों हत्याकांड की तुलना आपस में किया जाना बेहद गलत है, लेकिन इसके बावजूद करना पड़ता है क्योंकि बहुत बड़ा और अक्सर चुनिन्दा मुद्दों पर मुखर होने वाला वर्ग इन घटनाओं को चुपचाप तौलने में जुटा है। तो चलिए अब तुलना शुरू करते हैं। पहला मामला गौरी लंकेश की हत्या का था। दो तीन अपराधी आते हैं और गोली मारकर उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं। यह एक दर्दनाक लेकिन एक सामान्य सी नजर आने वाली आपराधिक घटना थी। इसके बाद दूसरा मामला है शांतनु भौमिक के अपहरण और हत्या का है। शांतनु का अपहरण उस समय हुआ जब वह रिर्पोटिंग

काश! किसी ने पहल की होती।, आज बीएचयू का तमाशा नहीं बनता

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देखते ही देखते एक अच्छा-खासा और जरूरी सा आंदोलन कब हिंसाई और बौद्धिक तमाशा में बदल जाता है समझ में नहीं आता. लड़कियों की मांग कहाँ गलत थी. ? क्या अपनी सुरक्षा की मांग करना नाजायज है ? या उपर से ये कहना कि दो मिनट वीसी साहेब आकर मिल लेंगे तो हम लोग अपना प्रदर्शन बन्द कर देंगे। कितना अच्छा होता कि पहले ही दिन वीसी साहेब आते और लड़कियों के सर पर हाथ रखकर कह देते की "बेटी आप लोग निर्भीक रहें बीएचयू प्रशासन सदैव आपके साथ है" इतनी जिम्मेदारी तो बनती है न ? वाइस चांसलर एक यूनिवर्सिटी का गार्जियन ही तो है और बीएचयू प्रशासन संरक्षक। अब लड़कियां और लड़के अपनी बात इनसे नहीं कहेंगे तो किससे कहेंगे ? क्या इनको इतना पता नहीं था कि लड़कियों को सुरक्षा के प्रति आश्वस्त नहीं किया गया,तो कुछ लोग इस जरूरी आंदोलन के बहाने माहौल बिगाड़ने की भयंकर साजिश रच सकतें हैं..कुछ कलम लेकर बैठ सकते हैं और कुछ बम लेकर. और दुर्योग से वही हुआ भी..रात दस बमों की आवाज से समूचा परिसर ही नहीं दो किलोमीटर तक का इलाका गूंज उठा,अब बताइये ये बम बनाने वाले कौन लोग होंगे ? और उनकी मंशा क्या रही होगी.?। ये भी बताना

सत्य की खोज में... मैं कौन हूं...

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पहले वह ठीक था। अपर डिविजनल क्लर्क है। बीवी है, दो बच्चे हैं। कविता वगैरह का शौक है। वह मेरे पास कभी-कभी आता। कोई पुस्तक पढ़ने को ले जाता, जिसे नहीं लौटाता। दो-तीन महीने वह लगातार नहीं आया। फिर एक दिन टपक पड़ा। पहले जिज्ञासु की तरह आता था। अब कुछ इस ठाठ से आया जैसे जिज्ञासा शांत करने आया हो। उसका कुर्सी पर बैठना, देखना, बोलना सब बदल गया था। उसने कविता की बात नहीं की। बड़ी देर तो चुप ही बैठा रहा। फिर गंभीर स्वर में बोना, 'मैं जीवन के सत्य की खोज कर रहा हूं।' मैं चौंका। सत्य की खोज करने वालों से मैं छटकता हूं। वे अक्सर सत्य की ही तरफ पीठ करके उसे खोजते रहते हैं। मुझे उस पर सचमुच दया आई। इन गरीब क्लर्कों को सत्य की खोज करने के लिए कौन बहकाता है? सत्य की खोज कई लोगों के लिए अय्याशी है। यह गरीब आदमी की हैसियत के बाहर है। मैं, कुछ नहीं बोला। वही बोला, 'जीवन-भर मैं जीवन के सत्य की खोज करूंगा। यही मेरा व्रत है।' मैंने कहा, 'रात-भर खटमल मारते रहोगे, तो सोओगे कब।' वह समझा नहीं। पूछा, 'क्या-मतलब। मैं आपके पास आता हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि आप भी सत्य की खोज

गौरी पर 'गौर' किया, अब शांतनु पर इतनी 'शांति' क्यों...

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करीब एक पखवाड़े पहले कन्नड़ मूल की लेखिका व पत्रकार गौरी लंकेश की उनके घर पर ही दर्दनाक ढंग से हत्या कर दी गयी, जिस पर पूरे देश ने गुस्सा व दुःख जाहिर किया। हत्यारों की गिरफ्तारी की मांग की गयी, मुठ्ठा भर कैंडल लेकर लोगों ने मार्च  किया, विशेष विचारधारा के लोगों पर आरोप-प्रत्यारोप लगाये गए, देश के कई शहरों में जनसैलाब एकत्रित हुआ, प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया पर सभाएं आयोजित हुई, मीडिया ने भी अपने प्राइम टाइम में इसके खिलाफ आवाज़ उठाई, सोशल मीडिया लगभग गौरी को श्रधांजलि देने वालों से भर गया था।  इन सभी चीजों को देख मुझे बड़ा ही गर्व हुआ, मुझे लगा कि शायद आगे यह नौबत न आये, अब किसी कलमकार पर हमला  को दस बार सोचना पड़ेगा, इस भीड़ की आवाज़ को सुन, इस गुस्से को देख, वह जरुर थर्रा गया होगा। ऐसे लोग जो प्रेस की आजादी पर चोट करने की फिराक में रहते है, ऐसे लोग जो कलम की नोंक तोड़ने की चाहत रहते हैं आज उन्हें अंदाज़ा हो गया कि देश भर के कलमकार जब एकजुट हो जाये तो हवा का रुख मोड़ सकते हैं, सरकार को कटघरे में ला सकते हैं, जनता की आवाज़ को नया सुर दे सकते हैं। भले ही आज भी गौरी के हत्यारे पुलिस की गिरफ्त से बाहर

पत्रकारों की भी दुसवारियाँ हैं साहब

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गांव में मेरे कुल-पुरोहित के बेटे जगदीश बाबा लंबी बेरोजगारी झेलकर बनारस के किसी अखबार का स्ट्रिंगर बनने में सफल रहे। जल्द ही लोग उनकी साइकल पहचानने लगे, जिसकी डोलची पर उनका और उनके अखबार का नाम लिखा था। स्ट्रिंगर जमीनी स्तर पर अखबारों के हाथ-पांव होते हैं लेकिन उन्हें नियमित वेतन नहीं, छपी खबर की लंबाई के हिसाब से मेहनताना मिलता है। चार-छह मील के दायरे में जगदीश बाबा अपने अखबार के प्रतिनिधि थे। थानों और कोटा-परमिट की दुकानों में उन्हें बैठने के लिए कुर्सी मिलती थी। जब-तब छोटे-मोटे फायदे भी। लेकिन इलाके में उनकी छवि एक महापंडित के नालायक बेरोजगार बेटे की ही बनी रही। एक बार जगदीश बाबा ने किसी चौकी इंचार्ज के बारे में कोई तीखी खबर लिख दी तो उसने उन्हें चोरी के मामले में फंसा दिया और हवालात में बंद करके उनकी खूब पिटाई की। जगदीश बाबा के बारे में मेरे पास ठोस सूचनाएं इतनी ही हैं, सो उनको हीरो या विलेन की श्रेणी में रखना मेरे लिए संभव नहीं। हां, इतना पता है कि उनकी मृत्यु जहर से हुई और मेरे विद्वान कुल-पुरोहित के लिए अपने इकलौते बेटे का जीना और मरना, दोनों सतत पीड़ा के कारण बने रहे।

ऐसा मत कर तू लड़की है!

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‘ऐसा मत कर तू लड़की है’, ‘ज़ोर से मत बोल, ज़ोर से मत हंस तू लड़की है’, सिर झुका के चल,’लड़की होके बड़ों से ज़ुबान लड़ाती हो? ये सब बातें तब से ही सुनने को मिली हैं जब से कुछ जानने समझने लायक हुई। थोड़े और बड़े हो गएं तो घर से बाहर निकलना बंद, बस काम के लिए निकलो, अपने भाइयों के साथ भी नहीं खेलना बंद। बड़े भाई या पिता जी के साथ चारपाई पर नहीं बैठ सकती क्योंकि तुम एक लड़की हो। घर का सारा काम सीख लो, क्योंकि तुम एक लड़की हो। पैदा होते ही अमूमन हर लड़की को उसके हंसने -रोने, खाने -पीने, बोलने सब के मानक तय कर दिए जाते हैं। इस तरह जब एक लड़की बड़ी होती है उसको पितृसत्ता का वह रूप स्वाभाविक लगने लगता है जो धीरे-धीरे उसके भविष्य को दीमक की तरह चाट रहा होता है। लड़कियों को उनके और उनके भाई के साथ किया जाने वाला विभेद भी स्वाभाविक लगने लगता है। वह रात को चाहे जितनी देर से घर आए, कोई दिक्कत नही क्योंकि वह लड़का है। पिताजी घर में चाहे जितनी तेज़ आवाज़ में बात करें, गलत होने पर भी माँ के ही ऊपर ही चिल्लाएं पर माँ चुपचाप सुनती जाती है क्योंकि पिता जी एक पुरुष हैं। यहीं से उसमें पुरुष की श्रेष्ठता का स्वाभाविक

जाने रवीश को मोदी के खिलाफ बोलने पर क्यों देनी पडी सफाई

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वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के विरोध में दिल्ली के प्रेस क्लब में आयोजित की गई पत्रकारों की एक सभा में एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार के संबोधन पर सोशल मीडिया जगत में फेक न्यूज की बाढ़ आई हुई है. कुछ लोगों ने उनके भाषण के गलत अर्थ निकाल कर उनके खिलाफ एक तरह का अभियान चलाया है.

पत्रकारों का दुख सिर्फ गौरी लंकेश की ही मौत पर क्यों उमड़ा

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गौरी लंकेश की मौत पर मातम मनाया जाए लेकिन तमाशा न बनाया जाए, यह कोई पहली बार किसी पत्रकार की हत्या नहीं हुई है जो प्रेस क्लब पर सभाएं संबोधित की जा रही है। साहब ढोंग व दिखावा दुनिया बखूबी समझती है। इस देश ने पत्रकारों को जिंदा जलते देखा है, सीने पर गोलियां खाते देखा है, कईयों को मरते देखा है। शाहजहांपुर में एक पत्रकार को फूंक डाले गये जांबाज पत्रकार जागेंद्र सिंह के मामले ने पूरे यूपी और देश भर में तहलका मचा दिया था। इस मामले में तब की अखिलेश सरकार के एक प्रभावी मंत्री राममूर्ति वर्मा और उसके गुर्गे तथा कोतवाल श्रीप्रकाश राय समेत पूरी टोली इस नृशंस हत्‍याकांड में शामिल थी। मगर भारतीय प्रेस क्‍लब इस माले में पूरी तरह तटस्‍थ रहा, मानो इस मामले से उसका कोई लेना-देना ही न हो। गुरमीत राम रहीम के काले कारनामों पर से पर्दा उठाने वाले पूरा सच के संपादक रामचंद्र छत्रपति की हत्या पर आवाज बुलंद की थी। पेशे से वकील था रामचंद्र छत्रपति, लेकिन अपराधियों से पूरा सच उगलने के अभियान के तहत उसने रामरहीम का कच्‍चा-चिट्ठा इतना छाप दिया कि मानो तूफान भड़क गया। नतीजा यह हुआ कि उसके चंद मीनों पहले ही

मीडिया के लिए तब था 'मल्टीटैलेंटेड बाबा', और अचानक आज...

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वही मल्टीटैलेंटेड बाबा राम रहीम अब मीडिया के लिए रेपिस्ट, कुकर्मी, हैवान, ढोंगी न जाने क्या-क्या बन गया है। था तो वह पहले भी लेकिन इस मीडिया उस वक़्त दिखाई नहीं देता था, देता भी कैसे बाबा की खूबियाँ गिनने से फुरशत मिले तब तो खामियों की तरफ नज़र जाए। खैर आज के समय में यह ढोंगी बाबा मीडिया चैनलों के लिए टीआरपी का संसाधन बन चुका है। तभी तो बाबा के काफ़िले से लेकर बाबा की आलीशान गुफ़ा तक आपने एक-एक करके बाबा की सारी परतें उधेड़ कर रख दी हैं। बाबा अय्याश पहले भी था, बाबा ढोंगी पहले भी था, बाबा के डेरे में हथियारों से लैस उसके ख़ुद के प्राइवेट कमांडों पहले भी थे। बाबा का डेरा पहले भी रहस्यमयी था।बाबा पर बलात्कार के आरोप डेढ़ दशक पहले लगे थे लेकिन नींद तब खुली जब दो बहादुर बेटियों ने अपने बल बूते जंग जीत ली, बाबा को काल कोठरी पहुंचा दिया, बबके गुंडों ने आपकी संपत्ति जला भी, कुछ आपके साथियों को चोट पहुंचा दी। देर हो गयी है साहब, आपकी पोल खुल चुकी है, जनता सब समझती है। कहावत है सुबह का भूला शाम को भी घर लौट आए तो भूला नहीं कहते लेकिन आपने तो लौटने में वर्षों लगा दिये, आपका ही साथी इस बाबा की

हमारी मेट्रो, आपकी मेट्रो, सबकी मेट्रो ...फिर सियासत क्यों ?

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लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ अब मेट्रो वाला शहर हो गया है। नोेएडा के बाद लखनऊ सूबे का दूसरा शहर होगा जहां लोग मेट्रो ट्रेन में सफर कर पाएंगे। 5 सितंबर को बड़े ताम झाम के साथ सीएम योगी आदित्यनाथ, केन्द्रीय गृह मंत्री व लखनऊ के सांसद राजनाथ सिंह और राज्यपाल राम नईक की मौजूदगी में हरी झंडी दिखाकर लखनऊ मेट्रो के संचालन को आम लोगों के लिए शुरू किया गया। यह मौका सियासी लिहाज से बेहद अहम था, क्योंकि जिस मेट्रो को हरी झंड़ी दिखाई गई उसका लोकार्पण पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कर चुके थे। यही वजह रही कि समाजवादी पार्टी के नेताओं ने इस अवसर पर न सिर्फ अपना विरोध दर्ज करवाया बल्कि अगले दिन ही सैकड़ों पार्टी कार्यकर्ता अखिलेश यादव के पोस्टर लेकर मेट्रो में सवार होने के लिए ट्रांसपोर्ट नगर मेट्रो स्टेशन पर पहुंच गए। जहां उनका स्वागत पुलिस की लाठियों ने​ किया। लखनऊ में मेट्रो को लेकर जिस तरह की राजनीति हो रही है उसके पीछे की वजह स्पष्ट है। समाजवादी पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं का मानना है कि लखनऊ मेट्रो अखिलेश यादव की देन है। बतौर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के प्रयासों को देखते हुए यह