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काश मैं भी रवीश बन पाता !

इस 'काश' में एक 'आश' तो है, पर शायद वो 'विश्वास' नहीं। उम्मीदें है पर धीरे-धीरे धूमिल होती जा रही है, ऐसा नहीं कि हम प्रयास नहीं कर रहे। ऐसा भी नहीं की इंसान जो सोचे उसे पा न सके। लेकिन फिर भी एक बात का मलाल है जो अंदर ही अंदर कचोटता रहता है। यह मलाल शायद सिर्फ मेरा नहीं है, यह तमाम मेरे जैसे बहुते ही हमउम्र दोस्तों की है जिन्होने पत्रकारिता में यह सोच कर छलांग लगाया है कि हमे क्रांति लिखनी है। एक सवाल मेरे मन में न चाहते हुए भी उठता रहता है कि क्या वाकई हालिया समय में पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांति लिखी जा सकती है ? यह मुद्दा बेहद ही सोचनीय है। अब बात करते है पाइंट टू  पाइंट। न जाने हर वर्ष कितने युवा यह सोचा कर पत्रकारिता में छ्लांग लगा रहे है कि नाम कमाना है, कुछ उम्दा, बेहतरीन, शानदार करना है लेकिन चूक कहां रह जाती है, आखिर ऐसे युवाओं की मंशा पूरी क्यों नहीं हो पा रही? समस्या कहां आ रही है। तमाम ऐसे सवाल है जो मन ही मन कुरेदते रहते है। शायद यह भी एक कारण हो- बुलंदियों को छूने का हौसला तब तक ही होता है जब तक वास्तविकता से पल्ला नहीं पड़ता, क्योकि जैसे