ज़रा सोचो सब इन्सान है

ये जलते हुए घर किसके है ,ये कटते हुए तन किसके है,ये लोग बिलख काहे  रहे है ,कोई रो रहा है , कोई चिल्ला रहा है। यह मंज़र उस गाव का है जो सदियों से साम्प्रदायिकता सद्व्यहार का मिसाल था ,यहाँ लोग होली,दिवाली ,ईद,बकरईद सब कुछ एक साथ घुल मिल कर मनाते थे पर आज के नज़ारे कुछ अलग ही बयाँ कर रहे है ,कोई इतना क्रूर कैसे हो सकता है। जिसे वो कल तक  अपने गले से लगाते थे आज उन्हें ही जान से मार दिया। धर्म के नाम पर हम इंसानियत तक को भूल जा रहे है। धर्म,मजहब,जाति  ,पाती  अपने जगह सही है पर हमें मानवता की भी मर्यादा को भी समझना होगा। एक नवजवान होने के नाते तकलीफ इस बात से होती है की हमारे उम्र के लोग इस तरह की हिंसा में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे है। कहने को तो शिक्षा का स्तर काफी उच्चा है ,हम आधुनिकता में जी रहे है। पर वास्तव में हमारी वास्तविक सोच बदली है,हमारी विचारधारा बदली है फ़िलहाल की जो स्तिथि है उसे देख कर तो यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है की आज भी हमारे समाज की मानसिकता क्या है? आखिर कब हम एक दूसरे से मज़हब के नाम पर ये खुनी रंजिस का खेल खेलते रहेंगे। अपने भारतवर्ष में सियासत करने वाले राजनेता मजहब और धर्म के नाम पर सियासी गलियारों में खूब वाहवाही भी बटोर रहे है। इन नेताओ का क्या ,इन्हे तो बस अपने सियासी दाव पेच के लिए कोई न कोई मुद्दा चाहिए। सोचना हम जैसों को होगा। ये सदियों से चली आ रही सोच को लेकर हम कर तक जीते रहेंगे ? 

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