दशहरे में राम बनने वाला 'जुनैद' कैसे बन गया हैवान...
समाज किस ओर जा रहा है, कहाँ भागा जा रहा है कोई तो पकड़ लो, कोई तो रोक लो, यहां दरिंदा भी कैसे जगह बना रहा है। यह सब बातें अंतरमन को कही न कही टीसती रहती हैं, अन्दर ही अन्दर सवाल पूछती है कि तुम कैसे देख सकते हो, क्या तुममे भी इंसानियत नहीं रही। क्या तुम्हे भी किसी असहाय मां जिसने अपने कलेजे के टुकडे को खो दिया है उसका दर्द महसूस नहीं होता , तुम्हें उस बाप का भी दर्द नहीं महसूस होता जिसने अपने लाठी के सहारे को खो दिया हो और बेसहारा पड़ा कही कोने में तड़प रहा है, या फिर उस बहन का जो इस उम्मीद में रहती थी कि राखी आये तो वो अपने भाई की सूनी कलाई पर राखी बांधे। आखिर तुम्हें इन सब बातों का मलाल कैसे नही होता ,कैसे किसी घर के इकलौते चिराग के बुझ जाने से तुम्हें उस घर में अंधेरा महसूस नही होता...चलो कोई न सिर्फ तुमने ही ठेका थोड़ी ले रखा है दर्द तो सबको महसूस होना चाहिए था फिर भी एक सवाल उठता है कि ये अचानक बिना हवा बयार के अचानक इतना तेज तूफान कहां से आता है जो बिना किसी आहट सब कुछ उथल-पुथल कर चला जाता है। मेरे गांव का वो किस्सा अब सिर्फ किस्सा बन रह गया है जब रहीम चाचा का जुनैद ईद पर घर आता
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