ऐसा मत कर तू लड़की है!

‘ऐसा मत कर तू लड़की है’, ‘ज़ोर से मत बोल, ज़ोर से मत हंस तू लड़की है’, सिर झुका के चल,’लड़की होके बड़ों से ज़ुबान लड़ाती हो? ये सब बातें तब से ही सुनने को मिली हैं जब से कुछ जानने समझने लायक हुई। थोड़े और बड़े हो गएं तो घर से बाहर निकलना बंद, बस काम के लिए निकलो, अपने भाइयों के साथ भी नहीं खेलना बंद। बड़े भाई या पिता जी के साथ चारपाई पर नहीं बैठ सकती क्योंकि तुम एक लड़की हो। घर का सारा काम सीख लो, क्योंकि तुम एक लड़की हो। पैदा होते ही अमूमन हर लड़की को उसके हंसने -रोने, खाने -पीने, बोलने सब के मानक तय कर दिए जाते हैं।

इस तरह जब एक लड़की बड़ी होती है उसको पितृसत्ता का वह रूप स्वाभाविक लगने लगता है जो धीरे-धीरे उसके भविष्य को दीमक की तरह चाट रहा होता है। लड़कियों को उनके और उनके भाई के साथ किया जाने वाला विभेद भी स्वाभाविक लगने लगता है। वह रात को चाहे जितनी देर से घर आए, कोई दिक्कत नही क्योंकि वह लड़का है। पिताजी घर में चाहे जितनी तेज़ आवाज़ में बात करें, गलत होने पर भी माँ के ही ऊपर ही चिल्लाएं पर माँ चुपचाप सुनती जाती है क्योंकि पिता जी एक पुरुष हैं। यहीं से उसमें पुरुष की श्रेष्ठता का स्वाभाविक आभास होने लगता है। और जो थोड़ी बहुत कसर रह जाती है वो घर की महिलाएं पूरी कर देती हैं क्योंकि उन्होंने भी यही देखा और सहा है। इस तरह पितृसत्ता ज़रूरत पड़ने पर इन्हे ही अपने एजेंट के रूप मे इस्तेमाल करती है।

लड़की की शादी होगी तो पूरे परिवार की महिलाएं मिलकर उसके दिमाग में यही बात बैठाने पर लगी रहती हैं कि तुम्हारा पति तुम्हारे लिए परमेश्वर है। अब शादी होते ही एक सामान्य सा लड़का चाहे वह उस लड़की के योग्य हो या अयोग्य उसका परमेश्वर बन जाता है। फिर परमेश्वर जब चाहे जैसे चाहे उस लड़की का उपभोग करे उसकी नीयत पर तो कोई सवाल उठा ही नहीं सकता। जिस समाज मे पत्नी की दुनिया पति के कदमों से आगे है ही नहीं वहां किसी लड़की के प्रतिरोध का उसके पति पर क्या कोई फर्क पड़ेगा? फिर चाहे वो घुटती रहे ज़िंदगी भर अपने इस पवित्र रिश्ते संभालने की ज़िम्मेदारी लिए हुए ।

हमारे देश मे वैवाहिक बलात्कार महिलाओं के साथ होने वाला ऐसा ही एकतरफा मनमानापन है जो जबरन पत्नी की इच्छा के विरुद्ध पति द्वारा शारीरिक संबंध या अन्य यौन अत्याचारों के रूप मे किया जाता है। एक आम समझ यही कहती है कि ये भी अन्य बलात्कार की ही तरह एक अपराध है परंतु ये हमारे समाज मे विवाह के पवित्र बंधन की आड़ में पूर्णतया मान्य है। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों को देखें तो रेप की 80 प्रतिशत से ज्यादा घटनाएं ऐसी हैं जो पतियों के द्वारा अंजाम दी जाती हैं तथा इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वीमेन, 2011 के मुताबिक हर पांच पुरुष  में से एक अपनी पत्नी या पार्टनर को सेक्स के लिए मजबूर करता है।

विडंबना तो यह है कि जिनके साथ यह घटित होता है उनमे से ही बहुत कम लोगों को इसके बारे में पता है। उनको तो यही बताया जाता है कि ये तो पति का प्यार है और वे प्यार के इसी रूप के साथ अनुकूलित हो चुकी है। पर प्यार जोकि बराबरी और साझेदारी का रिश्ता है उसमें इस तरह का एकतरफा मनमानापन कैसे हो सकता है। अगर पत्नी बीमार है, उसका मन नहीं है तो क्या उसकी मर्ज़ी से कोई फर्क नहीं पड़ता? हां नहीं पड़ता है फर्क, और सबसे शर्मनाक बात यह है कि इसके खिलाफ हमारे देश में कोई कानून नहीं है क्योंकि इससे हमारी परंपरा और संस्कृति की रक्षा में बाधा पहुंचेगी।

हमारे देश मे रेप कानून में कहा गया है कि- जब कोई पुरुष किसी महिला के साथ किसी ज़बरदस्ती से कोई यौन व्यवहार करता है तो वह बलात्कार की श्रेणी में आता है और वह अपराध माना जायेगा परंतु उसके नीचे ही मैरिटल अपवाद दिया गया है कि यदि यही सब एक पति अपनी पत्नी के साथ करता है तो वह अपराध की श्रेणी में नही आएगा।

यौन अपराधों के लिए बनी जे.एस. वर्मा समिति ने भी मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में शामिल करने की अनुशंसा की थी पर सरकार को यह मंज़ूर नही। जैसे ही मैरिटल रेप पर कानून बनाने की बात आती है भारतीय संस्कृति और परंपरा पर आंच आने लगती है। मैरिटल रेप के खिलाफ कानून मान्य नहीं क्योंकि अगर ये कानून बन गया तो हमारे देश के पुरुषों को मनमानी करने को नहीं मिलेगा। इनको कानून का डर हमेशा सतायेगा।

एक तर्क जो इसके कानून के नहीं बनने के बचाव में दिया जाता है वो है कि इसका दुरुपयोग हो सकता है और इससे पारिवारिक व्यवस्था और विवाह जैसा पवित्र संबंध भी संकट में पड़ सकता है। तो ये तो कॉमन सेंस है कि जो शादी बस कानून नहीं होने की वजह से बचा रहे वो खत्म हो जाए तो बेहतर है। और रही बात पारिवारिक संबंधों के बिखरने की तो उसका दायित्व हमेशा पुरुषों से ज्यादा स्त्रियों ने संभाला है।

                                                                                              -Shalu singh 

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