हमारी मेट्रो, आपकी मेट्रो, सबकी मेट्रो ...फिर सियासत क्यों ?


लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ अब मेट्रो वाला शहर हो गया है। नोेएडा के बाद लखनऊ सूबे का दूसरा शहर होगा जहां लोग मेट्रो ट्रेन में सफर कर पाएंगे। 5 सितंबर को बड़े ताम झाम के साथ सीएम योगी आदित्यनाथ, केन्द्रीय गृह मंत्री व लखनऊ के सांसद राजनाथ सिंह और राज्यपाल राम नईक की मौजूदगी में हरी झंडी दिखाकर लखनऊ मेट्रो के संचालन को आम लोगों के लिए शुरू किया गया।

यह मौका सियासी लिहाज से बेहद अहम था, क्योंकि जिस मेट्रो को हरी झंड़ी दिखाई गई उसका लोकार्पण पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कर चुके थे। यही वजह रही कि समाजवादी पार्टी के नेताओं ने इस अवसर पर न सिर्फ अपना विरोध दर्ज करवाया बल्कि अगले दिन ही सैकड़ों पार्टी कार्यकर्ता अखिलेश यादव के पोस्टर लेकर मेट्रो में सवार होने के लिए ट्रांसपोर्ट नगर मेट्रो स्टेशन पर पहुंच गए। जहां उनका स्वागत पुलिस की लाठियों ने​ किया।


लखनऊ में मेट्रो को लेकर जिस तरह की राजनीति हो रही है उसके पीछे की वजह स्पष्ट है। समाजवादी पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं का मानना है कि लखनऊ मेट्रो अखिलेश यादव की देन है। बतौर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के प्रयासों को देखते हुए यह स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए कि लखनऊ में मेट्रो लाने का सपना उनके ही प्रयासों से सफल हुआ, लेकिन यूपी की योगी सरकार उनके नाम और योगदान को किसी भी स्तर पर गिनने को तैयार नहीं है। इसकी बहुत बड़ी वजह भारतीय राजनीति पर हावी पुरानी सोच है। जहां सियासत एक बदले की भावना से की जाती है और बदला लेने के मामले में कोई किसी से कम नहीं है।
वैचारिक रूप से कोई भी पार्टी बदले की भावना से की जाने वाली राजनीति को खत्म करने को तैयार नहीं है। शायद इसी वजह से सीएम योगी आदित्यनाथ ने लखनऊ मेट्रो के संचालन का शुभारंभ करते हुए पूर्व सीएम अखिलेश यादव का नाम तक लेना जायज नहीं समझा। हालांकि कई बुद्धिजीवियों को उनसे उम्मीद थी कि वे इस कार्यक्रम में पूर्व मुख्यमंत्री को बुला सकते हैं, लेकिन सभी का अंदाजा गलत साबित हुआ।



यूपी की राजनीति को करीब से पढ़ने वालों को माने तो सीएम योगी को इसके लिए पूरी तरह से दोषी नहीं माना जा सकता, क्योंकि पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने लखनऊ मेट्रो को लेकर पूरा श्रेय अकेले लेने का प्रयास किया। लखनऊ मेट्रो के लिए सीएम अखिलेश यादव ने भले ही सबसे ज्यादा पुरूषार्थ किया हो लेकिन उनके इस प्रयास को सफल बनाने में केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार का भी सहयोग रहा। अखिलेश यादव ने इस प्रोजेक्ट में कभी केन्द्रीय सहयोग की बात को स्वीकार नहीं किया। अखिलेश यादव ने मेट्रो प्रोजेक्ट को लोकार्पण कार्यक्रम के लिए राज्यपाल को बुलावा तक नहीं भेजा। उन्हें शायद इस बात का डर था कि कहीं राज्यपाल लोकार्पण कार्यक्रम में मीडिया के सामने केन्द्र सरकार के सहयोग का जिक्र न कर बैंठें। यह बहुत बड़ी वजह रही कि जब योगी आदित्यनाथ को मौका मिला तो उन्होंने भी अखिलेश यादव के योगदान का कहीं भी जिक्र तक नहीं होने दिया।


एक आम नजरिए से देखा जाए तो लखनऊ में मेट्रो का आना और संचालन शुरू होना एक उपलब्धी है। इस उपलब्धी पर किसी एक चेहरे या एक पार्टी का एकाधिकार स्वीकार योग्य नहीं है। वास्तविकता में बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने 2007—12 में अपने मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान लखनऊ में मेट्रो चलाने का सपना देखा था। मायावती ही वह नेता थीं जिन्होंने दिल्ली मेट्रो के नोएडा में होते विस्तार के साथ लखनऊ में मेट्रो सेवा को शुरू करने का ब्लूप्रिंट तैयार करवाया। लेकिन सत्ता उनके हाथ से जाती रही और अ​खिलेश यादव ने उनके इस सपने को लपक लिया और वह उसे हकीकत की जमीन पर उतारने में कामयाब भी रहे।


अखिलेश यादव ने जब 2014 लखनऊ मेट्रो का शिलान्यास किया तब उन्हें मालूम था कि यह प्रोजेक्ट रातों रात पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि हजारों करोड़ की लागत वाली इस योजना के लिए केन्द्र सरकार से कई मामलों में सहयोग की जरूरत पड़ेगी। जिसमें उन्हें केन्द्र की सत्ता में आई नरेन्द्र मोदी सरकार ने पूरा सहयोग दिया। इसके बाद अखिलेश यादव ने विधानसभा चुनावों को पास आता देख अपनी सरकार की उपलब्धी में लखनऊ मेट्रो को जोड़ने की नियत के चलते एयरपोर्ट से चारबाग रेलवे स्टेशन के बीच मेट्रो के ट्रॉयल को आनन फानन में शुरू करवाकर, प्रोजेक्ट का लोकार्पण कर डाला।


परिणाम स्वरूप लखनऊ मेट्रो ने अपने औपचारिक लोकापर्ण के करीब 8 महीने बाद संचालन करने की स्थिति में पहुंच पाई है। अब यूपी में योगी आदित्यनाथ के रूप में तीसरा मुख्यमंत्री है। जिसने लखनऊ मेट्रो के संचालन को शुरू करके इस प्रोजेक्ट पर अपनी सरकार का ठप्पा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

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