गौरी पर 'गौर' किया, अब शांतनु पर इतनी 'शांति' क्यों...

करीब एक पखवाड़े पहले कन्नड़ मूल की लेखिका व पत्रकार गौरी लंकेश की उनके घर पर ही दर्दनाक ढंग से हत्या कर दी गयी, जिस पर पूरे देश ने गुस्सा व दुःख जाहिर किया। हत्यारों की गिरफ्तारी की मांग की गयी, मुठ्ठा भर कैंडल लेकर लोगों ने मार्च  किया, विशेष विचारधारा के लोगों पर आरोप-प्रत्यारोप लगाये गए, देश के कई शहरों में जनसैलाब एकत्रित हुआ, प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया पर सभाएं आयोजित हुई, मीडिया ने भी अपने प्राइम टाइम में इसके खिलाफ आवाज़ उठाई, सोशल मीडिया लगभग गौरी को श्रधांजलि देने वालों से भर गया था।

 इन सभी चीजों को देख मुझे बड़ा ही गर्व हुआ, मुझे लगा कि शायद आगे यह नौबत न आये, अब किसी कलमकार पर हमला  को दस बार सोचना पड़ेगा, इस भीड़ की आवाज़ को सुन, इस गुस्से को देख, वह जरुर थर्रा गया होगा। ऐसे लोग जो प्रेस की आजादी पर चोट करने की फिराक में रहते है, ऐसे लोग जो कलम की नोंक तोड़ने की चाहत रहते हैं आज उन्हें अंदाज़ा हो गया कि देश भर के कलमकार जब एकजुट हो जाये तो हवा का रुख मोड़ सकते हैं, सरकार को कटघरे में ला सकते हैं, जनता की आवाज़ को नया सुर दे सकते हैं। भले ही आज भी गौरी के हत्यारे पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं लेकिन गौरी की हत्या के खिलाफ जिस तरह से आवाज़ उठाई गयी वह पल पत्रकारिता के लोगों के लिए सुकून भरा था, उनके अन्दर एक उम्मीद जरुर जग गयी थी कि हमारा कौम तो हमारे साथ हैं जो हमारे ऊपर आंच आने से पहले हमारे लिए खड़ा है लेकिन आज ये सारी उम्मीदें फिर से नाउम्मीद हो गयी। पता है सबसे बुरा क्या होता है-सबसे बुरा होता है उम्मीदों का मर जाना। आज एक बार फिर किसी पत्रकार की मौत हुई लेकिन अफ़सोस इस बार वह सब कुछ नहीं हुआ जो गौरी के लिए हुआ था। इस दफा तो ऐसा सन्नाटा पसरा मानों कुछ हुआ ही न हो । शांतनु भौमिक की हत्या हुई, जो खबर शायद आम आदमी के कान तक ठीक से पहुँची भी न हो।

फिर एहसास हुआ कि यहां मौत पर मातम नहीं, मुद्दों को देख मातम मनाया जाता है। तभी तो गौरी लंकेश की मौत पर छाती पीट-पीट कर रोने वालों को शांतनु भौमिक की हत्या, हत्या नहीं लगी। आज वे शांतनु की मौत पर ऐसे शांत हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो? शायद आज मुठ्ठा भर कैंडल ख़त्म हो गए, शायद आज वह भीड़ अपने-अपने काम में मशगूल हो गयी , शायद मीडिया के पास भी कई मुद्दे हैं जिनमें शांतनु कही दब सा गया है, प्रेस क्लब ने भी शांतनु के लिए जगह देने से मना कर दिया हो। फिर याद आया कि शांतनु भौमिक तो महज एक पत्रकार था न की किसी विशेष विचारधारा का प्रचारक। तभी तो इस नौवजवान पत्रकार की हत्या के बाद उनके चहेरे पर सिकन तक नहीं, शायद उन आँखों पर आज कोई पट्टी सी चढ़ गयी है। आज वे क्यों नहीं प्रेस क्लब पर जमा हो शांतनु के लिए अपनी संवेदना व्यक्त कर रहे हैं। वे टीवी चैनल भी नहीं दिख रहे , आंदोलनकारी भी व्यस्त हैं कही , कहाँ है वो प्रेस क्लब वाला धरना , कहाँ है कैडल मार्च। क्या ये सब सिर्फ कुछ चुनिन्दा पत्रकारों के लिए होता रहेगा। चलिये साधते रहिये एजेंडा आप सभी।



कौन था शांतनु, कैसे हुई हत्या 
त्रिपुरा के कम्युनिस्ट राज से. त्रिपुरा के लोकल चैनल 'दिनरात' मे काम करने वाले शांतनु भौमिक पर चाकू से हमला हुआ। उन्हें अगरतला अस्पताल ले जाया गया जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। पुलिस के मुताबिक शांतनु पश्चिमी त्रिपुरा में इंडिजीनस फ्रंट ऑफ त्रिपुरा और सीपीएम के ट्राइबल विंग टीआरयूजीपी के बीच संघर्ष को कवर कर रहे थे उसी दौरान उनका अपहरण कर लिया गया था। महज 24 साल के इस युवा पत्रकार को चाकुओं से गोदकर और पीटकर मार डाया गया। जिस राज्य में मारा गया, वो सीपीएम शासित है, माणिक सरकार मुख्यमंत्री हैं।


लंकेश की हत्या के विरोध में लामबंद होने वाले वामपंथी नेताओं और वामपंथी विचारधारा वाले पत्रकारों-लेखकों से लेकर उन तमाम पत्रकारों या अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधरों से सोशल मीडिया पर सवाल पूछे जाने लगे हैं कि गौरी लंकेश पर बोले तो अब क्यों नहीं बोल रहे हो? गौरी लंकेश की हत्या पर प्रेस क्लब में जमा हुए तो अब क्यों नहीं हो रहे हो? गौरी लंकेश की हत्या पर बेंगलुरु में प्रर्दशन कर रहे थे तो अब अगरतला में क्यों नहीं कर रहे हो ...? गौरी लंकेश के खिलाफ जुटी आवाजें अब कहां गुम हैं ? बहुत हद तक ये सवाल जायज भी हैं, ऐसे सवाल पूछे भी जाने चाहिए कि गौरी की हत्या पर उतना हंगामा तो शांतनु की हत्या पर इतना सन्नाटा क्यों?

कहां गायब हो गए आज वे 

बात सवाल पूछने वालों पर भी होनी चाहिए और मौन साधने वालों पर भी दोनों सेलेक्टिव हैं दोनों अपनी धारा के माकूल विषय देखकर ही बोलते और मौन साधते हैं जो मौन साधता है, उसे दूसरा आकर कोंचता है कि तुम चुप क्यों हो? बोलते क्यों नहीं? और जो बोलता है, उसे भी पहला आकर पूछता है कि तब तुम कहां थे...तब तुम चुप क्यों थे? दोनों 'तब तुम कहां थे' के सिंड्रोम से ग्रसित हैं

त्रिपुरा में पत्रकार शांतनु की हत्या की निंदा भी होनी चाहिए और त्रिपुरा सरकार की लानत-मलामत भी। गौरी लंकेश की हत्या पर एकजुट हुए वामपंथी नेताओं को भी जवाब देना चाहिए कि जब उनके सूबे में पत्रकार सुरक्षित नहीं तो वो किस मुंह से गौरी लंकेश की हत्या पर मातम मनाने के जुलूस में शामिल हुए थे? अगर तब चीख रहे थे तो अब भी चीखिए और कहिए कि आपके राज ये कैसे हुआ? पत्रकारों की सुरक्षा में अपनी सरकार और तंत्र की नाकामी का जवाब दीजिए। हत्यारों को सलाखों के पीछे पहुंचाकर कबूल करिए कि ये आपकी नाकामी थी। यकीनन वामपंथी जमात को भी त्रिपुरा के इस पत्रकार के कत्ल की निंदा भी उसी तेवर के साथ करनी चाहिए। 




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